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Showing posts from August, 2017

वो लड़की

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  थोड़ी सी चुलबुली,नटखट अनमनी सी थी वो लडकी। दो के पहाड़े जैसी सीधी एक से दस तक गिनती थी वो लड़की। थोड़ा सा गुस्सा थोड़े से नखरे चंद बातो में ही आ जाते थे उसको, मेरे लिये खुदा की इबादत थी वो लडकी। बात बात पर गुस्सा हो जाना, थोड़ा सा मनाने पर उसका मान जाना, दुनिया के लिए कुछ भी हो मेरे चेहरे की रौनक थी वो लडकी। चोरी छुपके से देखना , आवाज सुनते ही छत पर आजाना घर वालो के गुस्सा होने पर मेरे से लिपट कर रोया करती थी वो लड़की। कभी कंधे पर सर रखकर कभी बाहों में लिपटकर, जब भी मिलती थी खो जाया करती थी वो लड़की। जानता हूं दूर हे मिल नहीं सकती, लेकिन फिर भी मेरे पर जान छिड़कती थी वो लड़की। कहती है अब प्यार नहीं है तुमसे लेकिन बातो ही बातो में प्यार का इजहार किया करती थी वो लड़की। कहती थी अब ना छोडूंगी, वादा ना तोडूंगी, लेकिन सबकुछ छोड़कर ना जाने कहा चली गयी वो लडक़ी।  ना जाने कब उसकी यादो में खोता गया मै, मेरी कलम चलीं और शब्दों में बयां होती गयी वो लड़की।। मयंक शुक्ला

आज के समय की सबसे बेहतरीन पंक्तिया

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आज के जीवन पर सबसे बेहतर पंक्तिया " वक़्त का दर्रा दर्रा"  वक़्त का दर्रा दर्रा बिता जा रहा है, यादो के पन्नो को समेटा जा रहा है।                                   इस भागदौड़ की जिंदगी में, इस कदर उलझे हुए हैं, ऐसा लग रहा है कि जिंदगी को बस घसीटा जा रहा है।                             पैसो की चाहतो मे इतने  पागल हो गए है, रिश्तो को तो एक दायरे में समेटा जा रहा है।             सोचा था अब तो विराम लगेगा कही ना कही, लेकिन बेहतरिन की तलाश में बेहतर को भुला जा रहा है।                               कभी इसकी चाहतो मे, कभी उसकी चाहतो में, अपनी ही चाहतो को मारा जा रहा है।                           बड़े- बड़े भौतिक सुखों की तलाशो में, छोटे-छोटे सुखों का गला दबाया जा रहा है।।                                                           ए मयंक अब तो थम जा , कल को जीने के लिये "आज"  को क्यों गवाये जा रहा है।।                                                 जिंदगी को जिया नहीं सिर्फ और सिर्फ काटा जा रहा है।       ✍ मयंक शुक्ला✍

दलित

एक लेख शीर्षक है" दलित" दलित एक ऐसा शब्द जो आजादी के 70 साल बाद भी दलित ही हैं। सरकारे बदली ,नेता बदले ,वादे बदले बदला नहीं तो सिर्फ दलित। आज भी उसकी स्तिथि जैसी की वैसी है, पता ही नहीं चला इन 70 सालो में की दलितों के मसीहा कब कुबेर जी की छत पर बैठ गए,और दलित दलित ही रह गया। और आज भी उनका दलित राग चल ही रहा है, कुछ दलित कलेक्टर , बड़े बड़े अफसर बन गए लेकिन वो भी आज दलित ही हैं, उनके बचचो को आज भी दलित ही कहा जायेगा और जो वाकई में दलित है उनकी दशा का वर्णन सिर्फ और सिर्फ चुनाव में ही देखा जायेगा। अगले चुनाव तक फिर स्तिथि में सुधार आने की उम्मीद है, दलितों को फिर जलता हुआ दीपक मेड इन चायना का दिखाया जायेगा, लेकिन दलितों के हिस्से में अंधकार ही आयेगा। दलित तो उस लड़की की तरह हे, जिससे हवस तो सबको हे, लेकिन मोहब्बत किसी को नहीं। और बाकि सरकारों की तरह मोदी जी भी दलित राग अलापने लगे है और उम्मीद भी यही है कि ये भी ये राग अलापते -अलापते कुबेर जी की छत पर बैठ ही जायेंगे ।और दलित के जीवन में फिर अंधकार रूपी प्रकाश छोड़ जायेंगे। और दलित दलित ही रह जायेगा।✍ मयंक शुक्ला✍

हा वो दोस्त ही तो होता है

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कुछ पंक्तिया शीर्षक है" हा वो एक दोस्त ही तो होता है" 1.जो पल-पल साथ देता है, हर हालात से निकाल लेता है, हमारे गलत होने पर भी गलत नहीं कहता है। 'हा वो एक दोस्त ही तो होता है।' 2.हमारे हर राज को , हमारी हर बात को जान लेता है, हमारी हर मुसीबत को अपनी मुसीबत मान लेता है। जीवन के पथसंचरण वो हमेशा साथ देता है, हा वो एक दोस्त ही तो होता है। 3.जो पापा की डांट से बचाता है,फैल होने पर हमें दिलाशा दिलाता है, पापा के पूछने पर हा अंकल ये रोज पड़ने आता है ऐसा बतलाता हैं, हा वो एक दोस्त ही तो होता है। 4.जो कॉलेज में बंक पर ले जाता है,घंटो साथ बैठकर बतियाता है। मेरी बोरिंग बातो में भी इंटरेस्ट दिखाता है, हा वो एक दोस्त ही तो होता है। 5.वो पल बहुत याद आते है, दोस्ती के पन्ने भी एक ना एक दिन सिमट जाते है। उनकी यादो का झरोखा ही पास रह जाता है, हा वो एक दोस्त ही तो होता है जो बहुत याद आताहै। "हा वो एक दोस्त ही तो होता है।" सभी दोस्तों को समर्पित ✍ मयंक शुक्ला✍🏼