दलित

एक लेख शीर्षक है" दलित"
दलित एक ऐसा शब्द जो आजादी के 70 साल बाद भी दलित ही हैं। सरकारे बदली ,नेता बदले ,वादे बदले बदला नहीं तो सिर्फ दलित। आज भी उसकी स्तिथि जैसी की वैसी है, पता ही नहीं चला इन 70 सालो में की दलितों के मसीहा कब कुबेर जी की छत पर बैठ गए,और दलित दलित ही रह गया। और आज भी उनका दलित राग चल ही रहा है, कुछ दलित कलेक्टर , बड़े बड़े अफसर बन गए लेकिन वो भी आज दलित ही हैं, उनके बचचो को आज भी दलित ही कहा जायेगा और जो वाकई में दलित है उनकी दशा का वर्णन सिर्फ और सिर्फ चुनाव में ही देखा जायेगा। अगले चुनाव तक फिर स्तिथि में सुधार आने की उम्मीद है, दलितों को फिर जलता हुआ दीपक मेड इन चायना का दिखाया जायेगा, लेकिन दलितों के हिस्से में अंधकार ही आयेगा। दलित तो उस लड़की की तरह हे, जिससे हवस तो सबको हे, लेकिन मोहब्बत किसी को नहीं। और बाकि सरकारों की तरह मोदी जी भी दलित राग अलापने लगे है और उम्मीद भी यही है कि ये भी ये राग अलापते -अलापते कुबेर जी की छत पर बैठ ही जायेंगे ।और दलित के जीवन में फिर अंधकार रूपी प्रकाश छोड़ जायेंगे। और दलित दलित ही रह जायेगा।✍ मयंक शुक्ला✍

Comments

Popular posts from this blog

"माँ"

"नारी शक्ति"

आदमी की औकात कविता

वो लड़की

"कोई मेरे बचपन के पल लौटा दो"

आज के समय की सबसे बेहतरीन पंक्तिया

कुछ दर्द उन बच्चीयों के लिए

"झूठी खुशियो में दम तोड़ते रिश्ते"